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antarrashtriya vyapar ka tulnatmak lagat siddhant, अंतरराष्ट्रीय व्यापार के तुलनात्मक लागत सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए

तुलनात्मक लागत का सिद्धांत में तर्क दिया जाता है कि विश्व उत्पादन में वृद्धि होगी जब तुलनात्मक लाभ के सिद्धांत को देशों द्वारा निर्धारित करने के लिए लागू किया जाता है कि उन्हें किन वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय व्यापार का तुलनात्मक लागत सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए?


तुलनात्मक लाभ एक अर्थव्यवस्था की अपने व्यापारिक भागीदारों की तुलना में कम अवसर लागत पर किसी विशेष वस्तु या सेवा का उत्पादन करने की क्षमता है।


अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का तुलनात्मक लागत सिद्धांत : आलोचनात्मक मूल्यांकन

1. भूमिका

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (International Trade) मानव सभ्यता और वैश्विक अर्थव्यवस्था का आधार है। प्राचीन काल से ही लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वस्तुओं का आदान-प्रदान करते आए हैं। पहले यह व्यापार सीमित भौगोलिक क्षेत्रों तक सीमित था, किंतु आधुनिक काल में यह राष्ट्रों के बीच व्यापक स्तर पर होने लगा।
व्यापार के इस विकास ने अर्थशास्त्रियों को यह सोचने पर मजबूर किया कि देश आपसी व्यापार क्यों करते हैं, किन वस्तुओं का आयात-निर्यात करते हैं और इस व्यापार से किसे लाभ होता है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए डेविड रिकार्डो (David Ricardo) ने 19वीं शताब्दी में तुलनात्मक लागत सिद्धांत (Comparative Cost Theory) प्रस्तुत किया।

यह सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण और बहुचर्चित सिद्धांत है। यद्यपि इसके कई लाभ हैं, लेकिन इसकी सीमाएँ और आलोचनाएँ भी उतनी ही गहरी हैं।


2. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को समझाने के लिए समय-समय पर कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए।

  1. मेरकेंटिलिस्ट दृष्टिकोण – व्यापार में अधिशेष को राष्ट्र की समृद्धि का आधार माना।
  2. एडम स्मिथ का पूर्ण लाभ सिद्धांत (Absolute Advantage Theory) – प्रत्येक देश को उसी वस्तु का उत्पादन करना चाहिए जिसमें उसे पूर्ण लाभ हो।
  3. डेविड रिकार्डो का तुलनात्मक लागत सिद्धांत (Comparative Cost Theory) – देशों के बीच व्यापार तभी संभव है जब एक देश को किसी वस्तु के उत्पादन में सापेक्षिक लाभ हो।
  4. आधुनिक सिद्धांत – हेक्सशेर-ओहलिन (H-O Theory), तकनीकी अंतर सिद्धांत, उत्पाद जीवन चक्र सिद्धांत, आदि।

इनमें से रिकार्डो का तुलनात्मक लागत सिद्धांत सबसे बुनियादी और प्रभावशाली सिद्धांत माना जाता है।


3. तुलनात्मक लागत सिद्धांत की उत्पत्ति एवं आधार

  • इस सिद्धांत को डेविड रिकार्डो (1772–1823) ने अपनी पुस्तक “Principles of Political Economy and Taxation (1817)” में प्रतिपादित किया।
  • इसका आधार श्रम-मूल्य सिद्धांत (Labour Theory of Value) और लागत की तुलना पर रखा गया।
  • रिकार्डो ने कहा कि व्यापार का आधार केवल पूर्ण लाभ नहीं है, बल्कि तुलनात्मक या सापेक्षिक लाभ है।

4. तुलनात्मक लागत सिद्धांत की परिभाषा एवं मुख्य अवधारणा

परिभाषा:
“यदि एक देश किसी वस्तु को अपेक्षाकृत कम लागत में तथा दूसरी वस्तु को अपेक्षाकृत अधिक लागत में पैदा करता है, जबकि दूसरा देश इसका उल्टा करता है, तो दोनों देशों के लिए यह लाभकारी होगा कि वे उन वस्तुओं का उत्पादन और निर्यात करें जिनमें उन्हें तुलनात्मक लागत लाभ प्राप्त है और अन्य वस्तुओं का आयात करें।”

मुख्य बिंदु:

  1. व्यापार का आधार पूर्ण लागत लाभ नहीं, बल्कि तुलनात्मक लागत लाभ है।
  2. प्रत्येक देश को अपनी विशेषज्ञता (specialization) उसी वस्तु में करनी चाहिए जिसमें उसकी अवसर लागत (opportunity cost) सबसे कम हो।
  3. इससे संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग संभव होता है।

5. तुलनात्मक लागत सिद्धांत की मान्यताएँ (Assumptions)

रिकार्डो के सिद्धांत को समझने के लिए उसकी कुछ मुख्य मान्यताओं को जानना आवश्यक है –

  1. केवल दो देश और दो वस्तुएँ (2 × 2 मॉडल) मान ली जाती हैं।
  2. प्रत्येक देश में उत्पादन हेतु केवल श्रम (labour) प्रयुक्त होता है।
  3. श्रम की उत्पादकता स्थिर रहती है।
  4. परिवहन लागत (transport cost) शून्य मानी जाती है।
  5. व्यापार में पूर्ण प्रतिस्पर्धा (perfect competition) होती है।
  6. श्रम देश के भीतर गतिशील है लेकिन देशों के बीच अचल है।
  7. मुद्रा को केवल विनिमय का साधन माना जाता है, इसका व्यापार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

6. तुलनात्मक लागत सिद्धांत का व्यावहारिक उदाहरण

मान लीजिए दो देश हैं – भारत और इंग्लैंड
दो वस्तुएँ – कपड़ा (Cloth) और गेहूँ (Wheat)

देश 1 यूनिट कपड़ा के लिए श्रम घंटे 1 यूनिट गेहूँ के लिए श्रम घंटे
भारत 80 120
इंग्लैंड 90 100
  • भारत में 1 कपड़े के लिए 80 घंटे और 1 गेहूँ के लिए 120 घंटे लगते हैं।
  • इंग्लैंड में 1 कपड़े के लिए 90 घंटे और 1 गेहूँ के लिए 100 घंटे लगते हैं।

विश्लेषण:

  • भारत कपड़ा अपेक्षाकृत कम लागत पर बना सकता है।
  • इंग्लैंड गेहूँ अपेक्षाकृत कम लागत पर बना सकता है।

👉 इसलिए भारत को कपड़ा निर्यात करना चाहिए और गेहूँ आयात करना चाहिए।
👉 इंग्लैंड को गेहूँ निर्यात करना चाहिए और कपड़ा आयात करना चाहिए।

इस प्रकार, दोनों देशों को व्यापार से लाभ होगा।


7. तुलनात्मक लागत सिद्धांत की उपयोगिता एवं महत्व

(क) सकारात्मक पक्ष

  1. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का आधार स्पष्ट किया – रिकार्डो ने दिखाया कि व्यापार का आधार केवल पूर्ण लागत नहीं, बल्कि तुलनात्मक लागत है।
  2. विशेषीकरण और दक्षता – देश वही वस्तु बनाए जिसमें वह सापेक्षिक रूप से अधिक दक्ष है।
  3. संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग – संसाधनों का आवंटन अधिक कुशलता से होता है।
  4. वैश्विक परस्पर-निर्भरता – देशों के बीच आर्थिक सहयोग और शांति को बढ़ावा।
  5. आज भी प्रासंगिक – WTO और मुक्त व्यापार समझौतों का आधार अभी भी यही अवधारणा है।

(ख) व्यावहारिक महत्व

  • विकासशील देशों को कृषि और कच्चे माल के निर्यात में लाभ।
  • विकसित देशों को औद्योगिक वस्तुओं के निर्यात में लाभ।
  • विश्व में उत्पादन और उपभोग दोनों स्तरों पर वृद्धि।

8. तुलनात्मक लागत सिद्धांत की सीमाएँ एवं आलोचना

यद्यपि यह सिद्धांत प्रभावशाली है, फिर भी इस पर कई आलोचनाएँ की गईं –

(अ) सैद्धांतिक आलोचनाएँ

  1. अवास्तविक मान्यताएँ – केवल दो देश और दो वस्तुएँ; परिवहन लागत शून्य; केवल श्रम पर निर्भरता – ये सब व्यावहारिक नहीं हैं।
  2. श्रम-मूल्य सिद्धांत की कमजोरी – आधुनिक अर्थशास्त्र में मूल्य निर्धारण केवल श्रम पर नहीं, बल्कि पूँजी, तकनीक, भूमि आदि पर भी निर्भर करता है।
  3. पूर्ण रोजगार की धारणा अवास्तविक – विकासशील देशों में बेरोजगारी प्रचलित है।
  4. स्थिर लागत की मान्यता – व्यवहार में उत्पादन लागत परिवर्तनीय होती है।

(ब) व्यावहारिक आलोचनाएँ

  1. परिवहन लागत का महत्व – यदि आयात-निर्यात पर भारी परिवहन लागत लगे तो तुलनात्मक लाभ समाप्त हो सकता है।
  2. व्यापार संतुलन की समस्या – कुछ देश लगातार घाटे में और कुछ अधिशेष में रहते हैं।
  3. प्राकृतिक संसाधनों की असमानता – सभी देशों को समान अवसर नहीं मिलता।
  4. आधुनिक वैश्विक व्यापार में तकनीक की भूमिका – आज प्रतिस्पर्धा का आधार केवल लागत नहीं, बल्कि नवाचार और प्रौद्योगिकी भी है।

(स) आलोचकों के दृष्टिकोण

  • हेक्सशेर-ओहलिन सिद्धांत: व्यापार का आधार लागत नहीं, बल्कि संसाधनों की प्रचुरता (factor endowments) है।
  • ग्रेहम (Graham): कभी-कभी तुलनात्मक लागत पर आधारित व्यापार से देश को नुकसान भी हो सकता है।
  • आधुनिक अर्थशास्त्री: तुलनात्मक लाभ समय और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है।

9. आधुनिक समय में तुलनात्मक लागत सिद्धांत की प्रासंगिकता

21वीं शताब्दी में वैश्विक व्यापार की स्थिति बदल चुकी है।

  1. ग्लोबल वैल्यू चेन (GVC) – अब एक वस्तु अलग-अलग देशों में अलग-अलग चरणों में बनती है।
  2. तकनीक और नवाचार – आईटी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स जैसे क्षेत्रों में तुलनात्मक लाभ लागत से अधिक नवाचार पर निर्भर है।
  3. सेवा क्षेत्र का उदय – आज केवल वस्तुएँ नहीं, बल्कि सेवाएँ भी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का बड़ा हिस्सा हैं।
  4. मुक्त व्यापार समझौते (FTA) और WTO – रिकार्डो का विचार अभी भी नींव की तरह मौजूद है।
  5. नव-औपनिवेशिक खतरा – कभी-कभी तुलनात्मक लागत का सिद्धांत विकासशील देशों को कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता बनाकर विकसित देशों पर निर्भर बना देता है।

10. निष्कर्ष

तुलनात्मक लागत सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के अध्ययन में मील का पत्थर है। डेविड रिकार्डो ने यह दिखाया कि व्यापार का आधार केवल पूर्ण लाभ नहीं, बल्कि सापेक्षिक लाभ है। इस सिद्धांत ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की नींव रखी और यह आज भी मुक्त व्यापार और वैश्विक सहयोग का आधार है।

हालाँकि, इसकी मान्यताएँ व्यवहारिक जीवन से मेल नहीं खातीं। आधुनिक समय में परिवहन लागत, तकनीकी नवाचार, पूँजीगत संसाधन और सेवा क्षेत्र की महत्ता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद यह सिद्धांत हमें यह मूलभूत शिक्षा देता है कि देशों के बीच सहयोग, विशेषज्ञता और संसाधनों का कुशल उपयोग ही वैश्विक समृद्धि का मार्ग है।

टिप्पणियाँ

RAJESH SARRAF ने कहा…
super notes