सामाजिक न्याय भारत की समतामूलक संरचना की आधारशिला है, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर टिका है। यह अवधारणा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित है, जहां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने का वादा किया गया है।
सामाजिक न्याय : समतामूलक भारत की आधारशिला
सामाजिक न्याय : भारतीय लोकतंत्र, संविधान और समावेशी विकास का मूल स्तंभ (UPSC Essay)
सामाजिक न्याय पर यूपीएससी के लिए निबंध अर्थ, सिद्धांत, संवैधानिक प्रावधान, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, समकालीन चुनौतियाँ, नीतियाँ, केस स्टडी, आलोचनाएँ और आगे की राह शामिल है।
भूमिका
"जहाँ अन्याय है, वहाँ शांति नहीं हो सकती।" यह कथन सामाजिक न्याय की अनिवार्यता को रेखांकित करता है। सामाजिक न्याय केवल संसाधनों के वितरण का प्रश्न नहीं, बल्कि सम्मान, अवसर और समानता का प्रश्न है। भारतीय समाज विविधताओं से भरा हुआ है—जाति, वर्ग, लिंग, धर्म, क्षेत्र और भाषा के स्तर पर। ऐसे समाज में सामाजिक न्याय लोकतंत्र की आत्मा है। यूपीएससी जैसे प्रतिष्ठित परीक्षा के निबंध में सामाजिक न्याय पर चर्चा करते समय इसके दार्शनिक, संवैधानिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक आयामों को समग्रता में प्रस्तुत करना आवश्यक है।
यह निबंध सामाजिक न्याय की अवधारणा, उसके सिद्धांतों, भारत में उसके विकास, संवैधानिक प्रावधानों, नीतिगत प्रयासों, चुनौतियों, केस स्टडी और भविष्य की दिशा पर विस्तृत एवं विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रस्तुत करता है।
सामाजिक न्याय की अवधारणा और अर्थ
सामाजिक न्याय का तात्पर्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार, अवसर और गरिमा प्रदान करना है। यह केवल कानूनी समानता तक सीमित नहीं है, बल्कि वास्तविक (Substantive) समानता की बात करता है।
दार्शनिक आधार
- अरस्तू – न्याय को "समानों के साथ समान व्यवहार" के रूप में देखा।
- जॉन रॉल्स – न्याय को निष्पक्षता (Justice as Fairness) कहा; अवसरों की समानता और सबसे कमजोर के हितों की रक्षा पर बल।
- अंबेडकर – सामाजिक न्याय को राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य बताया; बिना सामाजिक समानता के लोकतंत्र खोखला है।
भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय ऐतिहासिक अन्याय के सुधार और संरचनात्मक असमानताओं के उन्मूलन का माध्यम है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : भारत में सामाजिक अन्याय की जड़ें
भारत में सामाजिक अन्याय की जड़ें प्राचीन काल से जुड़ी हैं:
- जाति व्यवस्था – श्रेणीबद्ध समाज, अस्पृश्यता, पेशागत बंधन।
- पितृसत्ता – महिलाओं का शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार।
- औपनिवेशिक शासन – आर्थिक शोषण, क्षेत्रीय असमानताएँ।
19वीं और 20वीं शताब्दी में समाज सुधार आंदोलनों ने सामाजिक न्याय की चेतना को बल दिया:
- राजा राममोहन राय
- ज्योतिबा फुले
- पेरियार
- डॉ. भीमराव अंबेडकर
इन आंदोलनों ने आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय के विचार को संस्थागत रूप दिया।
भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय
भारतीय संविधान सामाजिक न्याय का दस्तावेज है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:
प्रस्तावना
- न्याय : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
- समानता
- बंधुत्व
मौलिक अधिकार (भाग-III)
- अनुच्छेद 14 – विधि के समक्ष समानता
- अनुच्छेद 15 – भेदभाव का निषेध
- अनुच्छेद 16 – सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर
- अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता का उन्मूलन
नीति निर्देशक तत्व (भाग-IV)
- अनुच्छेद 38 – सामाजिक व्यवस्था में न्याय
- अनुच्छेद 39 – संसाधनों का समान वितरण
- अनुच्छेद 46 – अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों का संरक्षण
संविधान निर्माताओं ने सकारात्मक भेदभाव (Affirmative Action) को सामाजिक न्याय का औजार माना।
सामाजिक न्याय के प्रमुख आयाम
1. जाति आधारित सामाजिक न्याय
- आरक्षण नीति (SC/ST/OBC/EWS)
- शिक्षा और रोजगार में प्रतिनिधित्व
- चुनौतियाँ: क्रीमी लेयर, सामाजिक तनाव, राजनीतिकरण
2. लैंगिक न्याय
- समान वेतन, शिक्षा, स्वास्थ्य
- कानून: घरेलू हिंसा अधिनियम, मातृत्व लाभ अधिनियम
- मुद्दे: कार्यस्थल पर उत्पीड़न, डिजिटल जेंडर गैप
3. आर्थिक न्याय
- गरीबी उन्मूलन
- न्यूनतम मजदूरी
- सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ
4. क्षेत्रीय और अल्पसंख्यक न्याय
- पूर्वोत्तर, आदिवासी क्षेत्र
- धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक
सरकारी नीतियाँ और योजनाएँ
सामाजिक न्याय को मूर्त रूप देने के लिए अनेक योजनाएँ लागू की गई हैं:
- समाज कल्याण योजनाएँ – छात्रवृत्ति, होस्टल
- मनरेगा – रोजगार और गरिमा
- पीएम आवास योजना – आवास का अधिकार
- राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम
नीतियों का उद्देश्य केवल राहत नहीं, बल्कि सशक्तिकरण है।
न्यायपालिका और सामाजिक न्याय
भारतीय न्यायपालिका ने सामाजिक न्याय के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है:
- केस: इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ – ओबीसी आरक्षण
- विशाखा दिशानिर्देश – कार्यस्थल पर लैंगिक न्याय
- पीआईएल – हाशिए के वर्गों की आवाज
न्यायिक सक्रियता ने नीति और प्रशासन को जवाबदेह बनाया है।
यह भी पढ़ें :घरेलू हिंसा छिपा हुआ अपराध upsc निबंध
सामाजिक न्याय और समकालीन चुनौतियाँ
- बढ़ती आर्थिक असमानता
- शहरीकरण और अनौपचारिक श्रम
- डिजिटल डिवाइड
- पहचान की राजनीति
- नीति कार्यान्वयन में भ्रष्टाचार
सामाजिक न्याय अब केवल कानून से नहीं, बल्कि सुशासन और सामाजिक चेतना से जुड़ा प्रश्न बन गया है।
केस स्टडी
केरल मॉडल
- शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश
- लैंगिक और सामाजिक संकेतकों में सुधार
बिहार में महादलित पहल
- लक्षित योजनाएँ
- सामाजिक समावेशन की कोशिश
ये उदाहरण दिखाते हैं कि राजनीतिक इच्छाशक्ति से सामाजिक न्याय संभव है।
आलोचनाएँ और विमर्श
- आरक्षण बनाम मेरिट
- कल्याण बनाम आत्मनिर्भरता
- पहचान बनाम समरसता
आलोचनाओं के बावजूद सामाजिक न्याय को स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील अवधारणा के रूप में देखना चाहिए।
आगे की राह : सामाजिक न्याय 2.0
- शिक्षा की गुणवत्ता पर जोर
- कौशल विकास और रोजगार
- डेटा-आधारित लक्षित नीति
- सामाजिक संवाद और जागरूकता
- संस्थागत सुधार
सामाजिक न्याय को दया नहीं, अधिकार के रूप में स्थापित करना समय की मांग है।
निष्कर्ष
सामाजिक न्याय भारतीय लोकतंत्र की नैतिक आधारशिला है। यह न केवल अतीत के अन्याय का सुधार है, बल्कि भविष्य के समतामूलक समाज का निर्माण भी है। जैसा कि डॉ. अंबेडकर ने कहा था—"सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र टिक नहीं सकता।" यूपीएससी निबंध के दृष्टिकोण से सामाजिक न्याय एक ऐसा विषय है जहाँ तथ्य, दर्शन, संविधान और समकालीन दृष्टि का संतुलन उत्तर को उत्कृष्ट बनाता है।
अंततः, सामाजिक न्याय केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब है।
टिप्पणियाँ